Pukaar by Priyamvada Rana

पुकार

मैने ढूंदना चाहा उस लकीर को,
जिसने मिट्टी को हमारी बाँटा था,
शायद उन्ही लकीरों के जंजाल मे फंस कर,
मेरा तार तुमतक ना पहुंच पाता था…

मोहोब्बत से गुलज़ार था मेरा दिल,
इश्क़ करने से इसे मैने भी नहीं रोका,
उन वादियओं में मोहोब्बत का आग़ाज़,
तो मेरा मन कबसे करना चाहता था।

“शायद ‘कश्मीर’ क पहाड़ बहुत ऊँचे होंगे”,
कहकर मैने खुद को समझाया था,
हो ना हो उन्ही से टकराकर,
ख़त मेरा वापस आता था।

‘झेलम’ क किनारे कितनी बार बैठ,
लिखा मैने मोहोंब्बत का अफ़साना था,
‘उनके’ डर से बहती थी झेलम भी उल्टी,
इसलिए वो खत सिर्फ़ मुझतक ही रहजाता था।

‘थार’ के रेगिस्तान मे भी मैने,
उस ग़ज़ल को अपनी दफ़नाया था,
शायद धूमिल हो चले थे वो अक्षर,
जिनसे संदेश मैने अपना पिरोया था।

ये मन आज भी भरता है पन्ने,
उसको ना बंदूक,ना मज़हब का डर है,
जिज्ञासु है आज भी जानने के लिए,
की तुम्हारा हाल उस पार कैसा है,

इसे ख़त कहो या संदेश,
ये अब मेरे मन का दर्पण बन चुका है,
जो मिले वो खत तुम्हे तो देखना,
उस शीशे मै क्या तुम्हें भी कोइ अपना दिखता है!

By Priyamvadha Rana